देवी-देवता नहीं गांधी को पूजते हैं ग्रामीण

>> Monday, March 16, 2009

देश के मंदिरों में जहां विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, वहीं उड़ीसा  के संबलपुर के भतरा गांव स्थित गांधी मंदिर में रोजाना रामधुन के साथ महात्मा गांधी की पूजा की जाती है। गांव का हर व्यक्ति मंदिर से प्रसाद लेने के बाद ही अपने काम पर जाता है। सुनने में भले ही यह आश्चर्य लगे, लेकिन यह सच है कि करीब 35 वर्षाें से भतरा गांव में यही परंपरा चली आ रही है। देश भले ही महात्मा गांधी को गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, गांधी जयंती या शहीद दिवस पर याद करे, लेकिन भतरा गांव के लोग रोजाना महात्मा गांधी को किसी देवता की तरह याद करते है और उनकी पूजा करते हैं।
उड़ीसा के संबलपुर जिला मुख्यालय से करीब तीन किलोमीटर दूर कटक राजमार्ग से थोड़ी दूर स्थित भतरा गांव का यह गांधी मंदिर संभवत: देश का एकमात्र गांधी मंदिर है, जहां गांधी जी की कांसे की प्रतिमा सिद्धासन की मुद्रा में है। एक मीटर से थोड़ी ऊंची इस प्रतिमा को खलिकोट कला कालेज के एक कलाकार ने बनाया था जबकि मंदिर की अंदरूनी साज-सच्चा भतरा के ही तृप्तभूशण दास गुप्त ने की थी। इस गांधी मंदिर की परिकल्पना अनुसूचित जाति के नेता अभिमन्यु कुमार ने की थी। श्री कुमार जब रेढ़ाखोल से विधायक चुने गये तब उन्होंने इस परिकल्पना को साकार करने का निश्चय किया। संबलपुर के तत्कालीन राजस्व आयुक्त रवींद्र नाथ महांती ने भी विधायक उनका साथ दिया और 23 मार्च 1971 को गांधी मंदिर का शिलान्यास किया गया। करीब 11 मीटर लंबे, साढ़े छह मीटर से कुछ अधिक चौड़े और करीब 12 मीटर ऊंचे इस मंदिर को पूरा होने में तीन वर्ष लगे। तत्कालीन मुख्यमंत्री नंदिनी शतपथी ने 11 अपै्रल 1974 को इस मंदिर का उद्घाटन किया और तभी से यह गांधी मंदिर आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। वैसे महात्मा गांधी की पूजा तो रोजाना सुबह और शाम को की जाती है, लेकिन 26 जनवरी, 15 अगस्त और दो अक्टूबर को यहां विशेष पूजा की जाती है। संबलपुर जिलाधीश पहले इस मंदिर में पहुंचकर महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि अर्पित करते है और इसके बाद अन्य कार्यक्रमों में शिरकत करते है। भतरा गांव का यह गांधी मंदिर एक और मामले में अन्य किसी मंदिर से अलग है। दूसरे मंदिरों के समक्ष जहां गरुड़ स्तंभ होता है, वहीं इस मंदिर के सामने अशोक स्तंभ है। मंदिर में भारत माता की प्रतिमा भी है, जिसके हाथ में तिरंगा है। और तो और गांधी मंदिर की चोटी पर भी तिरंगा लहराता रहता है। करीब डेढ़ हजार की आबादी वाला यह गांव नगरपालिका के एक प्रमुख वार्ड में शामिल है, लेकिन मौलिक सुविधाओं की कमी अब भी खलती है। गांव के अधिकांश लोग अब भी पेट की आग बुझाने के लिये गांव से बाहर निकलते है। वर्ष के 365 दिनों में से केवल तीन-चार दिन ही सरकारी अधिकारी और नेताओं के यहां दर्शन होते है। इस मंदिर को लेकर एक विकास कमेटी भी बनायी गयी है, जो समाज सेवा का कार्य भी करती है। कमेटी गरीब विद्यार्थियों की सहायता भी करती है। शाम के समय गांव वाले मिल-जुलकर मंदिर में भजन-कीर्तन करते हैं। मंदिर का पुजारी अब भी स्कूली बच्चों को गांधीगिरी का पाठ पढ़ाता है ओर सब की खुशहाली की कामना करता है।

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इंदौर में बनी थी गांधी जी की घड़ी

>> Monday, March 9, 2009

अमेरिका में नीलामी के चलते राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पांच निशानियां इन दिनों चर्चा में हैं। इनमें एक जेब घड़ी भी शामिल है, जो इंदौर में बनी थी। घड़ी निर्माता एम. एम. कस्तूरे ने 11 जून 1947 को यह घड़ी गांधी जी को भेंट की थी।

स्वर्गीय कस्तूरे के पुत्र मुकुंद कस्तूरे ने रविवार को यहां बताया कि उनके पिता को घड़ी बनाने में महारत हासिल थी। उन्होंने इंदौर में 'उद्यम' नाम से घड़ियां बनाने का कारखाना शुरू किया था। स्वाधीनता संग्राम के दौरान स्वदेशी आंदोलन से प्रेरित होकर कस्तूरे ने पहली जेब घड़ी बनाई जो शायद देश की पहली हस्तनिर्मित घड़ी थी। उन्होंने यह घड़ी महात्मा गांधी को 1935 में उस वक्त दिखाई थी, जब वह मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति द्वारा आयोजित हिंदी सम्मेलन में भाग लेने इंदौर आए थे।

60 वर्षीय मुकुंद कस्तूरे ने बताया कि हिंदी अंकों वाली यह पहली हस्तनिर्मित घड़ी थी। गांधी जी जिस घड़ी को कमर में लटका कर रखते थे, वह 1947 में पटना से दिल्ली जाते वक्त खो गई थी। यह खबर अखबारों के जरिए जब उनके पिता को पता चली तो उन्होंने गांधी जी को इंदौर से दिल्ली टेलीग्राम कर अपने ट्रेडमार्क उद्यम की घड़ी उन्हें भेंट करने की इच्छा जाहिर की।

मुकुंद ने बताया कि उनके पिता की यह इच्छा 11 जून 1947 को पूरी हो गई जब उन्होंने चांदी के केस में जेब घड़ी और एक हस्तनिर्मित टेबल घड़ी बापू को भेंट की। इस घड़ी के अंक हिंदी में थे। बापू की शहादत के दिन 30 जनवरी 1948 तक यही घड़ी उनके पास थी। 

source :daily jagran, Indore edition

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घड़ी कमर में लटकाऊंगा.. मैं गांधी बन जाऊं

>> Friday, March 6, 2009

बचपन में पाठ्य पुस्तक में एक कविता पढ़ी थी, “मां खादी की चादर दे दे , मैं गांधी बन जाऊं।”

कविता में एक बच्चा मां से गांधी जी के जैसी वस्तुएं दिलवाने की मनुहार करता है ताकि वह भी उन्हें लेकर गांधी जी जैसा दिख सके।

उसमें गांधी जी की मशहूर घड़ी का जिक्र था। गांधी जी घड़ी हाथ में नहीं बांधते थे, कमर में लटकाते थे। “घड़ी कमर में लटकाऊंगा…”

तब बाल मन के लिए गांधी जी आदर्श थे, उनकी तरह कमर में घड़ी बांधने की उत्सुकता होती थी।

आज वही घड़ी तस्वीर में देखने को मिल रही है क्योंकि उसकी अमेरिका में नीलामी हुई है।


क्या आपको वह पूरी कविता और लेखक का नाम याद है?
कविता कुछ इस प्रकार थी:-

मां खादी की चादर दे दे, मैं गांधी बन जाऊं
सब मित्रों के बीच बैठ कर रघुपति राघव गांऊ

घड़ी कमर में लटकाऊंगा सैर सवेरे कर आऊंगा

मुझे रुई की पोनी दे दे

तकली खूब चलाऊं

मां खादी की चादर दे दे, मैं गांधी बन जाऊं


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