‘वेडनेसडे’ से वेडनेसडे तक

>> Saturday, November 29, 2008

परदे के पीछ आतंकवादियों ने नसीरुद्दीन शाह अभिनीत ‘ए वेडनेसडे’ देखी है जिसमें नायक कहता है कि दुष्ट शक्तियों ने शुक्रवार, शनिवार को हमले किए हैं। जिसके जवाब में मैंने बुधवार को चुना। इस राष्ट्रीय संकट की घड़ी में मन में उठे ज्वारभाटे को संयत रखकर तर्क के आधार पर मनन करना चाहिए। इस समय अपने राजनीतिक विचारों और व्यक्तिगत-धार्मिक पूर्वग्रहों को तजकर सोचना चाहिए। यह नारेबाजी का समय नहीं है।

कांग्रेस को दोष देने वाले भूल जाते हैं कि वाजपेयी के शासनकाल में आतंकी संसद में घुस गए थे। नरेंद्र मोदी जैसे सशक्त मुख्यमंत्री की नाक के नीचे अहमदाबाद में आक्रमण हुए और जयपुर के साइकिल बम धमाकों को कैसे भूला जा सकता है। आतंकवादी संगठन यह नहीं देखते कि कौन सत्तासीन है। यह मामला धर्म से भी नहीं जुड़ा है।

गौरतलब है कि जैसे भारत में अनेक भारत मौजूद हैं, वैसे ही पाकिस्तान में अनेक पाकिस्तान मौजूद हैं और वहां का अवाम भी हमारे अवाम की तरह असहाय है। पाकिस्तान में विगत साठ वर्षो से सेना प्रमुख भूमिका में हैं और इतनी शक्तिशाली है कि नेताओं की इच्छा के खिलाफ भी काम करती है।

पाकिस्तान की जन आकांक्षा को सेना कभी अहमियत नहीं देती। तालिबान ताकतों की घुसपैठ पाकिस्तानी समाज और सरकार में बहुत गहरी है और उन्हें भारत को नुकसान पहुंचाना पसंद है। पाकिस्तान से आकर मुंबई पर आक्रमण करने वाले न इस्लामी हैं और न ही पाकिस्तानी। वे उस दल के हैं जो पूरे विश्व में शांति के खिलाफ हैं।

भारत पर विश्व की मंदी का असर अन्य देशों की तुलना में कम पड़ रहा था, अत: उसके आर्थिक आधार पर आघात किया गया है। भारत के तमाम शहरों से भारी मात्रा में धन मुंबई आता है क्योंकि तमाम बड़ी कंपनियों के मुख्यालय यहां पर हैं, अत: मुंबई को अस्थिर करना उन्हें भारत को तोड़ने की तरह लगता है।

आमतौर पर हमले आम आदमी के ठिकाने पर होते आए हैं और पहली बार भारत के अमीर लोगों के ठिओं को निशाना बनाया गया है। नवंबर और दिसंबर के पहले दो सप्ताहों में अनेक मल्टीनेशनल कंपनियों के शिखर अधिकारी भारत आते हैं और नए व्यापारिक अनुबंध होते हैं। अत: इस बार एक तीर से दो शिकार किए गए।

आतंकवादी संगठनों में बहुत काबिल लोग सक्रिय हैं और उनके पास हमारी पुलिस से अधिक जानकारियां हैं। मुंबई के नरीमन भवन में इजरायली रहते हैं जैसी जानकारी भी उनके पास थी। टेक्नोलॉजी का भरपूर फायदा वह उठाते हैं। उनके पास पुलिस से बेहतर शस्त्र हैं। उनका प्रशिक्षण भी उच्चतम मानदंड पर किया गया है। उनके मन में पैदा किया गया उन्माद और मृत्युइच्छा उनकी कुशलता को धार प्रदान करती है। इस राष्ट्रीय संकट से उबरने में केवल एक ही चीज हमारी सहायता कर सकती है और वह है राष्ट्रीय चरित्र का विकास और उसकी निर्भीक अभिव्यक्ति।

यह काम राजनैतिक दल नहीं कर सकते क्योंकि राष्ट्रीय चरित्र के विकास के साथ ही उनके निजी स्वार्थ और सत्ता का लालच मर जाएगा। सत्ता के समीकरणों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय चिंता का समय है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की सुरक्षा और उनका भविष्य उनके भूतकाल से जुड़ा है और समग्र एशिया की शांति के उद्देश्य के साथ ही यह लड़ाई लड़ी जा सकती है।

दैनिक भास्कर से सभार

Read more...

जीवन में भी है गार्बिज इन, गार्बिज आउट

>> Friday, November 21, 2008

एक बालक अपने पिता के साथ भ्रमण करते हुए किसी पर्वतीय क्षेत्र में जा पहुंचा। चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पर्वत मानो उन्हें चिढ़ा रहे थे। अचानक वहां एक स्थान पर बच्चे का पैर फिसला। पैर फिसलने पर उसके मुंह से 'आह-आह' का स्वर निकला। यही आह-आह की आवाज पहाड़ों से भी प्रतिध्वनित होकर आई, जिसे सुनकर वह बच्चा हैरान रह गया। इस पर बच्चा जोर से चिल्लाया- तुम कौन हो, वापस लौटकर वही आवाज आई - तुम कौन हो? इस पर नाराज़ होकर बच्चा बोला- तुम कायर हो। तब पलटकर आवाज आई- तुम कायर हो।
बालक ने चकित होकर अपने पिता से पूछा- यह क्या हो रहा है? पिता मुस्कराए और बोले- अब मैं भी कुछ कहता हूं, इसे ध्यान से सुनना। इतना कहकर वे जोर से चिल्लाए- मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूं। तुम अद्भुत हो। वही आवाज लौटकर आई। बालक को कुछ भी समझ न आया। तब पिता ने बताया कि आवाज के इस तरह लौटकर आने को प्रतिध्वनि कहते हैं। जो बात हम पहाड़ों से कहते हैं, वही बात लौटकर हमारे पास आती है। 

फिर पिता ने समझाया- बेटा, जीवन भी ऐसा ही है। यहां हम जो भी कहते या करते हैं, वही हमें वापस मिलता है। हमारा जीवन हमारे कामों की ही प्रतिच्छाया है। 

पुन: उन्होंने समझाते हुए कहा- जब हम छोटे थे तो हमें पढ़ाया जाता था कि जैसा बोओगे, वैसा काटोगे। कंप्यूटर की आधुनिक भाषा में यही बात इस तरह कही जाती है- गार्बिज इन, गार्बिज आउट। इस संसार का यही नियम है। हमेशा ऐसा ही होता आया है। बस हमें यह पता नहीं होता कि कब और कैसे कोई बात हो जाती है? यदि हम किसी को मित्र बनाते हैं, तो हमें उससे निष्कपट प्रेम करना होगा। 

किसी को धन-संपत्ति दे देना प्रेम नहीं होता, किंतु किसी की व्यथा का अनुभव कर उससे मीठा बोलना या सहानुभूति देना महत्व रखता है। जब हम कष्ट में मदद का हाथ बढ़ाते हैं, तो हम बहुत कुछ दे देते हैं। पर कई बार लोगों का व्यवहार इसके उलट होता है। अगर कोई व्यक्ति अपने किसी पड़ोसी की कोई मदद करता है, तो कुछ समय बाद वह पड़ोसी को उसके प्रति किए गए उपकारों की याद दिलाता है कि देखो, मैंने तुम्हारी फलाना-फलाना सहायता की थी। इस तरह उन अच्छे कामों को गिन-गिन कर पड़ोसी पर कृतघ्नता का बोझ लादते हैं। यही नहीं, दूसरों के राई भर दोष को बिल्व फल के समान तथा अपने बिल्व के समान दोष को राई के समान समझते हैं। 

समस्या तो यह है कि हम ईश्वर तक से ऐसा ही व्यवहार करते हैं। ईश्वर हमें अपने दिव्य भंडार से दिल खोलकर अन्न, जल, प्रकाश तथा वायु देता है, परंतु इतना सब कुछ पाने पर भी हम उसके अहसान को भूल जाते हैं। यदि हमें ईश्वर से तथा उसके बनाए हुए जीवों से प्रेम चाहिए, तो हमें अपने आप में नदी जैसी उदारता, सूर्य जैसी कृपालुता तथा पृथ्वी की भांति आतिथ्य भाव उत्पन्न करना होगा। हम वणिक की भांति व्यापार की भावना न रखें कि एक सत्कार्य के बदले में फल की प्रतीक्षा करने लगें। किसी नेकी और प्रेम का प्रतिदान कब कहां और किस रूप में मिलेगा- इसका हमें ज्ञान नहीं हो सकता, पर जीवन में वह प्रतिदान मिलता अवश्य है।

Read more...

चंद्रयान हम और आप

>> Wednesday, November 19, 2008

भारत चांद पर जा पहुंचा है? यकीन नहीं होता… यह महानगरों की टूटी- फूटी सड़कों वाला, गांवों में गुल बिजली वाला देश चांद पर जा पहुंचा है? कब हो गया, कैसे हो गया, किसने किया यह चमत्कार?

जब हम सरकारी दफ्तरों में चाय पीते, फाइलें टालते समय गुजार रहे थे, घर का कचरा गली में फेंक कर सफाई कर रहे थे, सड़कों पर थूक रहे थे, भाषा-जाति-धर्म-प्रांत के नाम पर फूट डालने वाले नेताओं के पीछे अंधों की तरह भाग रहे थे, सिनेमा और क्रिकेट के नायकों पर फिदा हुए जा रहे थे….

तब कुछ गुमनाम वैज्ञानिक देश के किसी गुमनाम कोने में अपने जीवन के अमूल्य वर्ष बिता कर भारत को चांद पर भेजने के लिए काम कर रहे थे। चंद्रयान को बनाने के पहले और उसके जरिए  चांद पर तिरंगा भेजने के बाद भी, ये सारे वैज्ञानिक अब भी स्वेच्छा से गुमनामी में हैं, अब भी भारत के लिए काम कर रहे हैं।

आज लालबहादुर शास्त्री होते तो उन्हें इन वैज्ञानिकों पर गर्व होता।

भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकउल्ला खां, सुखदेव और राजगुरू होते तो उन्हें इन वैज्ञानिकों पर गर्व होता।

क्या आपको गर्व है अपने इन देशवासियों पर जिनकी कर्तव्यनिष्ठा से आज चांद पर तिरंगा मौजूद है?

अगर है, तो कृपया आप उनके सम्मान में कुछ करिए।

ज्यादा नहीं, सिर्फ इतना ही कि आपके जो सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्य हैं उन्हें निभाने की कोशिश करिए।

कोशिश करिए कि जिस दफ्तर की तनख्वाह आपको रोटी देती है, उसका कार्य पूरी निष्ठा से करें।

कोशिश करिए कि सार्वजनिक स्थान पर आप कचरा फेंकने के भागी न बनें।

कोशिश करिए कि ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन आपके द्वारा न हो।

कोशिश करिए कि बिना लाउडस्पीकर लगाए समारोह- त्योहार की खुशी मना सकें।

कोशिश करिए कि अपने गांव- शहर- कस्बे में वृक्षारोपण करने में सहभागी बन सकें।

कोशिश करिए कि बांटने की भाषा बोलने वाले हर राजनेता से दूर रह सकें।

सबसे बढ़ कर: यह मत देखिए कि दूसरा क्या कर रहा है, यह देखिए कि आप क्या कर रहे हैं।  

बहुत सारी बातें हैं जो आप अपने देश को गर्व करने लायक बनाने के लिए कर सकते हैं।

कोशिश तो करिए। 

Read more...