जीवन में भी है गार्बिज इन, गार्बिज आउट

>> Friday, November 21, 2008

एक बालक अपने पिता के साथ भ्रमण करते हुए किसी पर्वतीय क्षेत्र में जा पहुंचा। चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पर्वत मानो उन्हें चिढ़ा रहे थे। अचानक वहां एक स्थान पर बच्चे का पैर फिसला। पैर फिसलने पर उसके मुंह से 'आह-आह' का स्वर निकला। यही आह-आह की आवाज पहाड़ों से भी प्रतिध्वनित होकर आई, जिसे सुनकर वह बच्चा हैरान रह गया। इस पर बच्चा जोर से चिल्लाया- तुम कौन हो, वापस लौटकर वही आवाज आई - तुम कौन हो? इस पर नाराज़ होकर बच्चा बोला- तुम कायर हो। तब पलटकर आवाज आई- तुम कायर हो।
बालक ने चकित होकर अपने पिता से पूछा- यह क्या हो रहा है? पिता मुस्कराए और बोले- अब मैं भी कुछ कहता हूं, इसे ध्यान से सुनना। इतना कहकर वे जोर से चिल्लाए- मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूं। तुम अद्भुत हो। वही आवाज लौटकर आई। बालक को कुछ भी समझ न आया। तब पिता ने बताया कि आवाज के इस तरह लौटकर आने को प्रतिध्वनि कहते हैं। जो बात हम पहाड़ों से कहते हैं, वही बात लौटकर हमारे पास आती है। 

फिर पिता ने समझाया- बेटा, जीवन भी ऐसा ही है। यहां हम जो भी कहते या करते हैं, वही हमें वापस मिलता है। हमारा जीवन हमारे कामों की ही प्रतिच्छाया है। 

पुन: उन्होंने समझाते हुए कहा- जब हम छोटे थे तो हमें पढ़ाया जाता था कि जैसा बोओगे, वैसा काटोगे। कंप्यूटर की आधुनिक भाषा में यही बात इस तरह कही जाती है- गार्बिज इन, गार्बिज आउट। इस संसार का यही नियम है। हमेशा ऐसा ही होता आया है। बस हमें यह पता नहीं होता कि कब और कैसे कोई बात हो जाती है? यदि हम किसी को मित्र बनाते हैं, तो हमें उससे निष्कपट प्रेम करना होगा। 

किसी को धन-संपत्ति दे देना प्रेम नहीं होता, किंतु किसी की व्यथा का अनुभव कर उससे मीठा बोलना या सहानुभूति देना महत्व रखता है। जब हम कष्ट में मदद का हाथ बढ़ाते हैं, तो हम बहुत कुछ दे देते हैं। पर कई बार लोगों का व्यवहार इसके उलट होता है। अगर कोई व्यक्ति अपने किसी पड़ोसी की कोई मदद करता है, तो कुछ समय बाद वह पड़ोसी को उसके प्रति किए गए उपकारों की याद दिलाता है कि देखो, मैंने तुम्हारी फलाना-फलाना सहायता की थी। इस तरह उन अच्छे कामों को गिन-गिन कर पड़ोसी पर कृतघ्नता का बोझ लादते हैं। यही नहीं, दूसरों के राई भर दोष को बिल्व फल के समान तथा अपने बिल्व के समान दोष को राई के समान समझते हैं। 

समस्या तो यह है कि हम ईश्वर तक से ऐसा ही व्यवहार करते हैं। ईश्वर हमें अपने दिव्य भंडार से दिल खोलकर अन्न, जल, प्रकाश तथा वायु देता है, परंतु इतना सब कुछ पाने पर भी हम उसके अहसान को भूल जाते हैं। यदि हमें ईश्वर से तथा उसके बनाए हुए जीवों से प्रेम चाहिए, तो हमें अपने आप में नदी जैसी उदारता, सूर्य जैसी कृपालुता तथा पृथ्वी की भांति आतिथ्य भाव उत्पन्न करना होगा। हम वणिक की भांति व्यापार की भावना न रखें कि एक सत्कार्य के बदले में फल की प्रतीक्षा करने लगें। किसी नेकी और प्रेम का प्रतिदान कब कहां और किस रूप में मिलेगा- इसका हमें ज्ञान नहीं हो सकता, पर जीवन में वह प्रतिदान मिलता अवश्य है।

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