घड़ी कमर में लटकाऊंगा.. मैं गांधी बन जाऊं
>> Friday, March 6, 2009
बचपन में पाठ्य पुस्तक में एक कविता पढ़ी थी, “मां खादी की चादर दे दे , मैं गांधी बन जाऊं।” कविता में एक बच्चा मां से गांधी जी के जैसी वस्तुएं दिलवाने की मनुहार करता है ताकि वह भी उन्हें लेकर गांधी जी जैसा दिख सके। उसमें गांधी जी की मशहूर घड़ी का जिक्र था। गांधी जी घड़ी हाथ में नहीं बांधते थे, कमर में लटकाते थे। “घड़ी कमर में लटकाऊंगा…” तब बाल मन के लिए गांधी जी आदर्श थे, उनकी तरह कमर में घड़ी बांधने की उत्सुकता होती थी। आज वही घड़ी तस्वीर में देखने को मिल रही है क्योंकि उसकी अमेरिका में नीलामी हुई है। क्या आपको वह पूरी कविता और लेखक का नाम याद है? मां खादी की चादर दे दे, मैं गांधी बन जाऊं घड़ी कमर में लटकाऊंगा सैर सवेरे कर आऊंगा मुझे रुई की पोनी दे दे तकली खूब चलाऊं मां खादी की चादर दे दे, मैं गांधी बन जाऊं
कविता कुछ इस प्रकार थी:-
सब मित्रों के बीच बैठ कर रघुपति राघव गांऊ
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